क्या बिन ब्याही लड़कियां भी ले सकती हैं मैटरनिटी लीव, जानें क्या कहता है कानून

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क्या बिन ब्याही लड़कियां भी ले सकती हैं मैटरनिटी लीव, जानें क्या कहता है कानून

Curated by: वरुण शैलेश|नवभारतटाइम्स.कॉम

भारत में अविवाहित महिलाओं के मातृत्व अवकाश को लेकर 1986 में एक ऐतिहासिक फैसला हुआ। सरकार ने मातृत्व लाभ अधिनियम में संशोधन करके यह स्पष्ट किया कि मातृत्व लाभ हर महिला का अधिकार है, चाहे वह विवाहित हो या नहीं।

नई दिल्लीः भारत जैसे पारंपरिक सोच वाले देश में जब किसी महिला के मां बनने की बात आती है, तो अक्सर यह मान लिया जाता है कि वह विवाहित होगी। लेकिन क्या कोई अविवाहित महिला, जो मां बनने जा रही है, मातृत्व अवकाश की हकदार है? इस सवाल का जवाब हां है-और इसके पीछे एक दिलचस्प इतिहास और साहसिक कानूनी पहल छिपी हुई है।

बिन ब्याही मांओं के लिए ऐतिहासिक फैसला

आज ही के दिन यानी 28 जून 1986 को भारत सरकार ने एक ऐतिहासिक फैसला लिया। इस दिन सरकार ने मातृत्व लाभ अधिनियम यानी मेटरनिटी बेनिफिट एक्ट में ऐसा संशोधन किया, जिसने एक बड़ी सामाजिक सोच को बदलने की नींव रखी। पहले इस कानून में ‘महिला’ शब्द का अर्थ अक्सर ‘विवाहित महिला’ माना जाता था। लेकिन 1986 के संशोधन ने यह स्पष्ट कर दिया कि मातृत्व लाभ किसी भी महिला को मिल सकता है-चाहे वह विवाहित हो या नहीं। यानी अविवाहित महिलाएं भी अब कानूनी रूप से मातृत्व अवकाश की हकदार बन गईं।इस संशोधन के पीछे सरकार का मकसद साफ था- कामकाजी महिलाओं के गर्भावस्था के दौरान स्वास्थ्य और सुरक्षा की गारंटी देना। चाहे वह महिला शादीशुदा हो या नहीं, गर्भावस्था के दौरान शरीर और मन दोनों को आराम की जरूरत होती है। काम और प्रसव के बीच संतुलन बनाने के लिए कानून का सहारा जरूरी है। 1986 से पहले यह लाभ अक्सर विवाहित महिलाओं तक ही सीमित समझा जाता था, लेकिन अब इसे एक मानवीय और संवेदनशील नजरिये के साथ देखा जाने लगा।

कानून में बदलाव, सामाजिक क्रांति की शुरुआत

कानून में इस बदलाव ने एक सामाजिक क्रांति की शुरुआत की। यह केवल एक प्रशासनिक आदेश नहीं था, बल्कि भारतीय समाज को यह संदेश देने का साहसिक प्रयास था कि एक महिला का मां बनना केवल उसकी वैवाहिक स्थिति से नहीं जुड़ा होता। उसकी सुरक्षा और सम्मान का अधिकार उसके गर्भवती होने मात्र से सुनिश्चित हो जाना चाहिए।

कानून में क्या प्रावधान हैं

आज मातृत्व लाभ अधिनियम के तहत एक कामकाजी महिला को पहली और दूसरी संतान के लिए 26 सप्ताह तक का मातृत्व अवकाश मिलता है। तीसरे बच्चे के लिए यह अवधि 12 सप्ताह है। यहां तक कि यदि कोई महिला बच्चा गोद लेती है या सरोगेसी से मां बनती है, तब भी उसे इस कानून के तहत मातृत्व अवकाश का अधिकार मिलता है।

मजेदार बात यह है कि इस कानून में ‘महिला’ शब्द का प्रयोग किया गया है- न कि ‘पत्नी’ या ‘विवाहित महिला’। यही शब्दावली इसे व्यापक और समावेशी बनाती है। यही कारण है कि अविवाहित, तलाकशुदा, विधवा या सिंगल मदर-हर तरह की महिला इसके तहत लाभ ले सकती है।

कानून ने समाज को रास्ता दिखा दिया

समाज में यह सोच अभी भी पूरी तरह नहीं बदली है, लेकिन कानून ने रास्ता दिखा दिया है। एक अविवाहित महिला को मां बनने पर सवालों का सामना तो करना पड़ सकता है, लेकिन कानून उसके अधिकारों के साथ मजबूती से खड़ा है। यह हमारे संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 15 (लैंगिक भेदभाव पर रोक) का वास्तविक रूपांतरण है।

इससे यह स्पष्ट है कि मातृत्व न तो शादी से बंधा हुआ अधिकार है और न ही किसी सामाजिक मान्यता की मोहताज। यह एक जैविक, भावनात्मक और मानवीय अनुभव है, जिसे कानून ने पूरी गरिमा के साथ पहचान दी है। आज जब दुनिया लैंगिक समानता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात करती है, भारत का यह कदम 1986 में ही उस दिशा में मजबूत नींव रखने वाला साबित हुआ। मातृत्व अवकाश का यह अधिकार सिर्फ छुट्टी नहीं, बल्कि महिलाओं की गरिमा और स्वास्थ्य का सम्मान है।

वरुण शैलेश

लेखक के बारे मेंवरुण शैलेशवरुण शैलेश NBT डिजिटल में असिस्टेंट न्यूज एडिटर हैं। उन्हें इंटरनेशनल रिलेशन,सोशल इश्यूज, फूड और कल्चर पर लिखना पसंद है। इससे पहले वह दैनिक भास्कर डिजिटल, आजतक डॉट इन में काम कर चुके हैं। 2009 में न्यूज एजेंसी IANS से पत्रकारिता की शुरुआत करने के बाद हिंदुस्तान और दैनिक जागरण जैसे अखबारों के सेंट्रल डेस्क पर रहे। बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, वाराणसी से ग्रेजुएशन और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन (IIMC), नई दिल्ली से पत्रकारिता की पढ़ाई के बाद जर्नलिज्म में एक्टिव हैं। वह मानते हैं कि खाना बनाने का शौक इंसान को संवेदनशील और लोकतांत्रिक बनाता है।… और पढ़ें

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