नई दिल्ली: देश का दिल कही जाने वाली राजधानी दिल्ली एक ऐसी सच्चाई से जूझ रही है जो न केवल सामाजिक, बल्कि आर्थिक और न्यायिक स्तर पर भी सवाल उठाती है। राजधानी में रेप के मामलों में दोषसिद्धि की दर मात्र 4.3% है, जो यह दर्शाती है कि न्याय की राह में कई रुकावटें हैं। एक आरटीआई से मिली जानकारी ने एक गंभीर तस्वीर पेश की है, जिसमें झूठे मामले, शिकायतकर्ताओं का बयानों से मुकरना और कानून के दुरुपयोग ने इस समस्या को और जटिल बना दिया है।
आंकड़ों का कड़वा सच
आरटीआई के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, दिल्ली की सात जिला अदालतों में से पांच (राउज एवेन्यू और द्वारका को छोड़कर) में 2021-2024 के बीच रेप के 3,097 मामले दर्ज हुए। इनमें से केवल 133 मामलों में ही दोषियों को सजा हुई। यानी, हर 100 मामलों में सिर्फ 4-5 में ही न्याय मिल पाया। पॉक्सो एक्ट के तहत मामले इस डेटा में शामिल नहीं हैं, फिर भी यह आंकड़ा चौंकाने वाला है।
साकेत और रोहिणी अदालतों के आंकड़े और भी हैरान करने वाला खुलासा करते हैं। इन अदालतों में 792 मामलों में से केवल 38 में सजा हुई, जबकि 194 मामलों में शिकायतकर्ता हॉस्टाइल हो गए, यानी उन्होंने अपने बयानों से पलट गए, जिसके चलते आरोपी बरी हो गए। बाकी अदालतों ने आरटीआई में कहा कि उनके पास हॉस्टाइल शिकायतकर्ताओं का डेटा ही नहीं है।
क्या हो रहा कानून का दुरुपयोग?
आरटीआई दायर करने वाले रोहिणी के निवासी शोनी कपूर कहते है कि रेप के मामलों में गोपनीयता के नाम पर सच्चाई दबाई जाती है। उन्होंने टीओआई से कहा, ‘एनजीओ फंडिंग के लिए दिल्ली को ‘रेप कैपिटल’ का तमगा देते हैं, लेकिन हकीकत में झूठे मामले न्यायिक समय और करदाताओं के पैसे की बर्बादी करते हैं।’ कपूर ने मांग की कि झूठे मामले दर्ज करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई हो।
आरटीआई से यह भी पता चला कि कुछ महिलाएं सीरियल रेप कम्प्लेनेंट बनकर कई लोगों के खिलाफ मामले दर्ज कराती हैं, जिसका मकसद पैसे कमाना होता है। उदाहरण के लिए, एक महिला ने 2014 से 2022 के बीच सात शिकायतें दर्ज कीं, तो दूसरी ने आठ। इस साल फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने एक 64 साल की पूर्व सैन्य अधिकारी के खिलाफ दर्ज रेप का मामला रद्द किया, जब पता चला कि शिकायतकर्ता ने आठ अन्य झूठे मामले भी दर्ज किए थे। कोर्ट ने हैरानी जताई कि दिल्ली हाई कोर्ट ने इस मामले में पहले हस्तक्षेप क्यों नहीं किया।
कानून का दुरुपयोग बन रहा एक नया खतरा
पुरुषों के अधिकारों के लिए काम करने वाली दीपिका नारायण भारद्वाज कहती हैं, “2013 के निर्भया कांड के बाद रेप कानूनों में बड़े बदलाव हुए, लेकिन अब ये कानून बदला लेने और मुआवजा वसूलने का जरिया बन गए हैं।” उनकी डॉक्यूमेंट्री ‘India’s Sons’ में एक आईपीएस अधिकारी की कहानी है, जिसपर एक ऐसी महिला ने रेप का आरोप लगाया, जिससे वह कभी मिला ही नहीं था।
आरटीआई से ये भी पता चला कि पिछले चार सालों में पीड़ित मुआवजा योजना के तहत 3,832 लोगों को 88.26 करोड़ रुपये दिए गए, लेकिन झूठे मामलों में केवल 6 लाख रुपये ही वसूले गए। दिल्ली राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण (DSLSA) के सचिव अभिनव पांडे कहते हैं, “मुआवजा पीड़ित की जरूरतों पर आधारित होता है, न कि आरोपी के अपराध पर। लेकिन झूठे मामलों में वसूली तभी संभव है, जब कोर्ट स्पष्ट रूप से इसे झूठा करार दे।”
न्याय की कठिन राह
फास्ट-ट्रैक कोर्ट की एक महिला जज ने कहा, ‘रेप के मामलों में ट्रायल एक लंबी और जटिल प्रक्रिया है। पुलिस, जांच अधिकारी और अभियोजक की एक भी चूक मामले को कमजोर कर सकती है। हमारी प्रणाली अभी पूरी तरह अचूक नहीं है।’ एडवोकेट मनीष भंडारी कहते हैं कि ज्यादातर मामले प्रेम प्रसंगों से शुरू होते हैं, जो बाद में झूठी एफआईआर में बदल जाते हैं। इससे वास्तविक पीड़ितों के लिए न्याय और मुश्किल हो जाता है।
दिल्ली में रेप केस की कम दोषसिद्धि दर और झूठे मामलों का बढ़ता चलन एक गंभीर चेतावनी है। एक्सपर्ट्स का मानना है कि एफआईआर दर्ज करने से पहले गहन जांच, झूठे मामलों पर सख्त सजा और मुआवजा योजना के दुरुपयोग पर रोक जरूरी है। अगर ये कदम नहीं उठाए गए, तो न केवल वास्तविक पीड़ितों को न्याय मिलना मुश्किल होगा, बल्कि समाज का भरोसा भी न्यायिक प्रणाली से उठता जाएगा।